Success Story: अपने हौसले से दी उम्र को मात, रखी देश के सबसे बड़े बैंक की नींव, बना दी 9 लाख करोड़ की संपत्ति

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Success Story: मुबंई की चाल से निकले एक व्‍यक्‍ति ने अपने देश के करोड़ों आम लोगों के घर बनाने के सपने को पूरा किया। हम बात कर रहे हैं भारत के एक ऐसे दिग्‍गज शख्‍स हंसमुख ठाकोरदास (एचटी) पारेख की।

एचटी पारेख ने ICICI बैंक से रिटायरमेंट के बाद 1977 में HDFC बैंक की शुरूआत की। उन्‍हें अपने पिता से बैंकिग सेवाओं की समझ मिली थी। हंसमुख पारेख ने अपना ग्रेजुएशन मुंबई से किया। जिसके बाद हायर एजुकेशन के लिए वह लंदन गए। ब्रिटेन से अपने देश वापस लौटने के बाद उन्‍होंने अपने करियर की शुरूआत की और देश के सबसे बडे बैंक HDFC की नींव रखी।

पढ़ाई के साथ की पार्ट टाइम जॉब

हंसमुख ठाकोरदास पारेख ने पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट टाइम जॉब की। मुंबई से इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन करने के बाद उन्हें ब्रिटेन में आगे की पढ़ाई करने का मौका मिला, जहां उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से बैंकिंग और फाइनेंस में बीएससी की डिग्री हासिल की। इसके बाद हंसमुख पारेख भारत लौट आए और मुंबई के मशहूर सेंट जेवियर्स कॉलेज में लेक्चरर के रूप में काम किया।

इसके बाद उन्होंने स्टॉक ब्रोकिंग फर्म हरकिसनदास लखमीदास के साथ जुड़कर फाइनेंशियल मार्केट में शानदार करियर की शुरुआत की। आईसीआईसीआई में वे 16 साल के करियर के बाद सेवानिवृत्त होने से पहले उप महाप्रबंधक से अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक तक पहुंचे।

रिटायरमेंट के बाद शुरू किया बैंकिंग कारोबार

66 साल की उम्र में जब लोग सेवानिवृत्ति के बाद सुकून की जिन्‍दगी जीते हैं तब हंसमुख भाई ने भारत के मध्यम वर्ग के घर के सपनों को पूरा करने के लिए एक जबरदस्त आइडिया के साथ शानदार वापसी की। उन्होंने 1977 में एक फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन के रूप में एचडीएफसी की स्थापना की और 1978 में पहला होम लोन दिया।

1984 तक एचडीएफसी 100 करोड़ रुपये से अधिक के वार्षिक ऋण को मंजूरी दे रहा था। 1992 में भारत सरकार ने एचटी पारेख को पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया। एचडीएफसी और एचडीएफसी बैंक का एक में विलय हो गया, जिससे 14114 लाख करोड़ रुपये की बड़ी इकाई बन गई।

बता दें कि एचडीएफसी के पूर्व चेयरमैन दीपक पारेख, हंसमुख ठाकोरदास पारेख के भतीजे हैं। पारेख ने जब इस बैंक की नींव रखी तो उन्होंने दीपक पारेख को लंदन से बुलाकर अपने बिजनेस से जुड़ने के लिए कहा था। कौन जानता था कि हंसमुख ठाकोरदास का ये फैसला ऐतिहासिक साबित होगा।

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