फागुन के महीने में ऋतुराज वसंत के आते ही टेसू के पेड़ लाल फूलों से लद जाते हैं और पूरा माहौल रोमांच से भर जाता है। तब शुरू होती है फाग की महफिलें। शहर के बदलते वर्तमान परिदृश्य से हटकर गांव में आज भी पुरानी परंपराएं जीवित हैं।
होली समेत अन्य त्योहारों की परंपराएं अधिकांश जगह अब पूरी तरह से भुलाई जा चुकी है। इसमें त्योहारों में ना उमंग बची है ना ही उत्साह। इससे लोग भी केवल औपचारिकता के तौर पर त्यौहार मनाने की रस्म अदा कर देते हैं। लेकिन कुछ गांव में अभी भी परंपरा जीवित रखी है।
जिला मुख्यालय के समीप के गांव मलकापुर में आज भी परंपरा और संस्कृति का निर्वाह हो रहा है। शिवरात्रि के बाद से ही गांव के मंदिरों और चौपालों में फाग की महफिल जमने लगी है। फाग गाने का अंदाज-ए-बयां इतना अनोखा और जोशीला होता है कि श्रोता मस्ती में चूर होकर थिरकने नाचने को मजबूर हो जाते हैं।
यहां होली का उत्साह और उमंग देखते ही बनता है। वर्तमान में तीसरी पीढ़ी के युवा पूर्वजों की यादें ताजा कर पारंपरिक फाग गीत गा रहे हैं। होली के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को फाग कहा जाता है। इन गीतों के माध्यम से होली खेलने, प्रकृति की सुंदरता, राधाकृष्ण और सीताराम के प्रेम के साथ ही हंसी ठिठोली का वर्णन होता है।
मंडली के लोकेश वर्मा ने बताया की मलकापुर में फागुन में फाग गाने की पुरानी परंपरा है। जिसे अब तीसरी पीढ़ी निभा रही है। लिंबाजी बाबा भजन मंडली के मुख्य गायक है गिरधारीलाल महतो। जिनके सानिध्य में बुजुर्ग, युवा एवं बच्चे फाग गाकर होली का आनंद लेते हैं। वे बताते हैं, पुराने समय में जब दिनभर खेतों में मेहनत करके शाम को जब थके हारे घर आते थे तो रात्रि में फाग की महफिल की मस्ती पूरी थकान दूर कर तरोताजा कर देती थी।
मंडली के निक्की महतो, नीरज वर्मा, श्रीकांत वर्मा, पप्पू मालवी की ढोलक की थाप और लल्ला चौधरी, दीपक वर्मा, प्रेमकांत वर्मा, लतेश वर्मा, अर्पित वर्मा के मंजीरो की झंकार तथा अखिल वर्मा की जोशीली आवाज हर किसी को झूमने पर मजबूर कर देते है। फाग मंडली में प्रीत वर्मा, बनवारी हजारे, सजल महतों, मनीष परिहार आदि स्वर दोहराते हैं।