Bhujariya Festival: सालों पहले इस तरह परखते थे हमारे पूर्वज बीजों की गुणवत्ता, सटीक साबित होता था उनका परीक्षण

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∆भुजलिया पर्व केवल एक त्योहार ही नहीं, बीजों की परख का विज्ञान भी, साल भर में तीन बार होता था परीक्षण : मोहन नागर

Bhujariya Festival: सालों पहले इस तरह परखते थे हमारे पूर्वज बीजों की गुणवत्ता, सटीक साबित होता था उनका परीक्षण

Bhujariya Festival: रक्षाबंधन के बाद आज देश भर में भुजलिया का पर्व मनाया जा रहा है। एकबारगी हम अपने किसी भी पर्व को महज रस्म अदायगी का एक पर्व या त्योहार भर मानने की भूल कर लेते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। हमारे हर पर्व के पीछे विज्ञान है और यह साबित करता है कि हमारे पूर्वज कितने वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले थे।

भुजलिया पर्व भी सतही तौर पर हमें ऐसा ही महसूस होता है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। यह पर्व भी हमारे पूर्वजों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक नायाब और उम्दा उदाहरण है। दरअसल यह एक दिखावटी पर्व नहीं है बल्कि कृषि आधारित हमारी अर्थव्यवस्था में बीजों की गुणवत्ता को परखने की एक परंपरा है। इसी के सहारे हमारे पूर्वज उस जमाने में भी भरपूर उत्पादन ले पाते थे जब न तो बीजों की परख के लिए ना कोई प्रयोगशाला होती थी और ना ही बाजार में कथित सर्टिफाइड बीजों की कोई उपलब्धता ही थी।

भुजलिया पर्व और हमारे पूर्वजों के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए वरिष्ठ पर्यावरणविद और भारतीय परम्पराओं के गहन जानकर मोहन नागर ने विस्तृत जानकारी प्रदान की है। श्री नागर के मुताबिक आजकल तो अन्न के बीज को सुरक्षित रखने तथा उसके परीक्षण के अनेक तरीके विकसित हो गए हैं। किन्तु प्राचीन काल से भारत में अगले एक वर्ष तक बीज को सुरक्षित रखने के भी तरीके थे।

पहले घरों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टी की कोठियाँ बनती थी, जिसमें नीम आदि की पत्तियाँ मिलाकर उसे वायुरोधक बनाकर अलग-अलग कोठियों में बीज रखा जाता था। इसके साथ ही उस सुरक्षित बीज का समय-समय पर परीक्षण भी किया जाता था।

पहला परीक्षण चैत्र मास में (Bhujariya Festival)

चैत्र मास में जब बीज रखा जाता था तो अच्छा बीज किस खेत का है, उसी खेत की मिट्टी लाकर उसे घर में चैत्र नवरात्रि में देवस्थान पर लाकर उगाया जाता था। जिसे हम जुआरे कहते हैं। जिस खेत का अन्न अच्छा उगता था, उसमें से बीज के लिए तिगुना रख लिया जाता था। शेष अन्न वर्षभर खाने के लिए रख लिया जाता था, ज्यादा होने पर बेच दिया जाता था।

दूसरा परीक्षण सावन मास में

बीज का दूसरा परीक्षण सावन मास में किया जाता था। कोठियों से अन्न निकालकर कि कहीं बीज में घुन तो नहीं लगा, उसे सावन शुक्ल नवमी को खेत से महुए के पत्तों और बाँस की टोकरी में मिट्टी लाकर पुनः बोया जाता था। इसे भुजलिया/कजलिया के नाम से जाना जाता है।

भाद्र कृष्ण प्रतिपदा (आज के दिन) को इन भुजलियों की शोभायात्रा धूमधाम से निकाली जाती थी। हर किसान एक-दूसरे का बीज कैसा उगा, यह देख भी ले इसलिए नदी-सरोवर आदि में जुआरे धोकर उसे एक-दूसरे को भेंट दिया जाता था। लोग इसी समय बीज की अदला-बदली भी कर लेते थे।

तीसरा परीक्षण बुआई के ठीक पहले (Bhujariya Festival)

शारदीय नवरात्रि में देवी जी के यहाँ सार्वजनिक रूप से जुआरा लगाने की परम्परा सदियों से है। पुनः जिस खेत में बुआई करना है उसकी मिट्टी लाकर मिट्टी के पात्र में अन्न उगाया Todayजाता है। जिस कोठी का सबसे अच्छा उगता उसे बीज के लिए तथा बाकी को अगले चार माह भोजन के रूप में उपयोग हो जाता था।

कैंसर रोधी भी है जुआरे

आज सिद्ध हुआ है कि जुआरे कैंसर रोधी है। हमारे यहाँ तो सदियों से जुआरे का रस पीने की परम्परा है। नदियों-सरोवरों में जुआरे धोने के बाद उसमें से आधे जुआरे गाँव के मन्दिर में चढ़ा दिया जाता था, मन्दिर का पुजारी उसे बाँटकर रस निकालकर शाम को संध्या आरती में भगवान के चरणामृत के रूप में सबको बाँटता था।

भूजल के सरंक्षण से भी जुड़ाव

बीज बचाने और उसे सुरक्षित रखने की इस अद्भुत प्रयोगशाला को हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसे त्यौहार का रूप दे दिया । भुजरिया पर अच्छी बारिश, धन-धान्य एवं सुख-समृद्धि की कामना भी की जाती है। प्रकृति प्रेम के इस पर्व को कुछ विद्वान भू-जल के संरक्षण से भी जोड़कर देखते हैं। आज एक-दूसरे को भुजरिया देकर पुरानी दुश्मनी भी लोग समाप्त करते हैं।

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