होली (Holi) के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है- भक्त प्रह्लाद (Prahlad) की। दो दिन तक चलने वाले त्योहार में धुरेंडी के दिन बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ (stereotypes) भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ फाग गाते हैं और नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।
यदि आज हमें यह सब देख कर लगता है कि यह पर केवल और केवल मौज-मस्ती का बहाना भर था तो यह गलत है। वास्तविकता यह है कि यह केवल रस्म अदायगी या हुड़दंग का बहाना नहीं है, बल्कि इसके पीछे हमारे पूर्वजों की वैज्ञानिक सोच (scientific thinking) है। इस त्योहार का सबसे बड़ा उद्देश्य सभी को सेहतमंद (healthy) करना था। होलिका दहन का कारण गाँव- गाँव को संक्रमित रोगों (infectious diseases) से बचाने का था।
भारतवर्ष में होलिका दहन शायद इन्हीं कारणों से होता था ताकि होलिका दहन से निकली धूम्र पूरे गांव को लाभान्वित कर सके। होलिका दहन से पूरे गाँव का वातावरण ’सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम’ हो सके। इसका मूल कारण यह भी है कि नई फसल का आगमन और उस फसल के स्वागत के लिए किसान उत्सव मनाता है।
होलिका दहन के लिए पहले वैदिक यज्ञ भी करना चाहिए। वैदिक युग में होली को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया था, क्योंकि यह वह समय होता है, जब खेतों में पका हुआ अनाज काटकर घरों में लाया जाता है। जलती होली में जौ और गेहूं की बालियां तथा चने को भूनकर प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं।
होली की अग्नि में भी बालियां होम की जाती हैं। यह लोक-विधान अन्न के परिपक्व और आहार के योग्य हो जाने का प्रमाण है। इसलिए वेदों में इसे ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया है। यह खेती और किसानी की संपन्नता का द्योतक है, जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है।
इस माह के पश्चात् वातावरण में कीट का प्रकोप प्रारंभ हो जाता है। परिणामस्वरूप नई बीमारियां अपना रूप दिखाने लगती हैं। इसलिए यज्ञ सामग्री ऐसी हो जिसके द्वारा कीटाणुओं का नाश हो। वैदिक होलिका दहन की हवन सामग्री में गाय के गोबर के कडे, गाय का घी, कपूर, गुगल, नीम के पत्ते, गिलोय आदि जड़ी-बूटियों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया जाना चाहिए।
विभिन्न प्रकार के औषधीय जड़ी-बूटियाँ आदि सामग्री डालने से इनके अंदर के रसायन भी सूक्ष्म रूप में निकलते हैं जो पूरे गांव को वायु के कण के रूप में पोषण व सुगन्ध प्रदान करते हैं। शायद गांव के बाहर मुहाने में होलिका दहन करने की परंपरा इन्हीं कारणों से थी। ताकि इन से निकली हुई वायु पूरे गांव को लाभान्वित कर सके।