होलिका दहन और धुरेंडी पर्व के साथ ही जिले में अब फागुनी मेलों (जतरा) का दौर शुरू हो गया है। अब लगभग एक महीने तक जिले के विभिन्न प्रमुख स्थानों पर यह फागुनी मेले लगते रहेंगे। ग्रामीण अंचल में लगने वाले इन मेलों में ना केवल वहाँ के स्थानीय लोग शामिल होते हैं बल्कि मेहमान और आसपास के ग्रामों से भी लोग शामिल होते हैं। जतरा के बहाने ही लोगों का आपस मेल मिलाप होने के साथ ही कुछ नए रिश्ते-नाते भी बनते हैं तो कुछ खरीदी भी हो जाती है।
ग्रामीण संस्कृति की जीवंत झलक दिखलाने वाले इन मेलों में वैसे तो कई वस्तुएं बिकने को आती हैं, लेकिन यदि सबसे ज्यादा बिक्री की बात की जाए तो वह होती है शक्कर की गाठी या गाठी की माला की। अब भले ही बाजार में महंगी-महंगी और कई तरह की मिठाइयां आ गई हैं, लेकिन इस मिठाई का मेलों में जलवा आज भी कायम है। आज भी फागुनी मेलों में सबसे ज्यादा भीड़ इसी की दुकान पर नजर आती है।
शक्कर की गाठी एक पारंपरिक मिठाई है। ग्रामीण क्षेत्र के गरीब परिवार महंगी मिठाई खरीदकर अपने बच्चों को नहीं दे सकते थे। ऐसे में गाठी की यह माला उसकी भरपाई पहले भी करती थी और आज भी करती है। भारी महंगाई के इस दौर में भी आज भी यह करीब 30 रुपये पाव और 100 से 120 रुपये किलोग्राम की दर से उपलब्ध है। सस्ती होने के कारण ही गरीब से गरीब परिवार भी इसे खरीद कर अपने बच्चों की ख्वाहिश पूरी कर उनको संतुष्ट, तृप्त और खुश होते देख सकता है।
विशेष बात यह है कि शक्कर की यह गाठी फागुनी मेलों में ही मिलती है। अन्य मेलों में यदि पुराना स्टॉक किसी के पास बचा हो तो ही उपलब्ध होती है। इसकी वजह यह बताई जाती है कि एक खास सीजन में ही यह बनती है। यही कारण है कि ग्रामीण अंचलों में बच्चों को फागुनी मेलों का विशेष इंतजार रहता है।
मेले में पहुंचते ही उनकी पहली फरमाइश गाठी की माला की खरीदी होती है। मलकापुर के लोकेश वर्मा बताते हैं कि इसके स्वाद की तो बात ही निराली है। एक बार जिसकी जीभ इसका स्वाद चख ले, वह बार-बार इसे खाना चाहेगा। शायद यही वजह है कि शहरों में बस चुके परिवारों के बच्चे भी जब ग्रामों में मेले के मौके पर पहुंचते हैं तो वे यही तलाशते नजर आते हैं। वैसे मेले में पहुंचने वाला हर व्यक्ति भी भले की कुछ और खरीदे या नहीं पर यह जरूर खरीदता है।
बैतूल के टिकारी क्षेत्र में शनिवार को लगे मेघनाद मेले में गाठी की माला की दुकान लगाए दुकानदार मनीराम बताते हैं कि आज भी गाठी की माला की मांग में कहीं कोई कमी नहीं हुई है। इसकी बिक्री आज भी उसी तरह होती है जैसे पहले होती थी। वे कहते हैं कि समय के साथ अब काजू-बादाम, सूखे मेवे और अलग-अलग रंगों में भी यह आने लगी है, लेकिन सामान्य सफेद रंग की माला की बादशाहत अभी भी कायम है।
वरिष्ठ पत्रकार अकील अहमद कहते हैं कि गाठी की माला दरअसल स्वाद में मीठी होने के साथ रिश्तों में भी मिठास लाती आई है। गांवों में बधाई देने के साथ उपहार में भी यह मिठाई भेंट करके रिश्तों में नई ऊर्जा भरी जाती है। वहीं बच्चों को इसे खिलाकर उनकी ख्वाहिश पूरी की जाती है। कई सक्षम परिवार ऐसे भी हैं जो कि काफी अधिक मात्रा में यह खरीदकर रख लेते हैं और आने वाले कई दिनों या हफ्तों तक अपने घर आने वाले मेहमान बच्चों या फिर आसपास के ही बच्चों को इसे खिलाकर खुशियां बांटते रहते हैं।