• लवकेश मोरसे, दामजीपुरा (भीमपुर)
बैतूल जिले के चूड़िया गांव के बारे में तो आप सभी जानते ही हैं कि वहां पर दूध बेचा नहीं जाता है। लेकिन कुछ इसी तरह की परंपरा भीमपुर विकासखंड के दामजीपुरा क्षेत्र में भी है। इस क्षेत्र के गांवों में सप्ताह के दो विशेष दिन आप पहुंच गए और कितने भी रुपए देने को तैयार हो जाए फिर भी आपको दूध नहीं मिलेगा। यह परंपरा इस क्षेत्र में कई पीढ़ियों से चली आ रही है।
इस परंपरा का निर्वहन केवल यादव समाज के लोग ही नहीं, बल्कि आदिवासी समाज के लोग भी पूरी निष्ठा से करते चले आ रहे हैं। परंपरा यह है कि यहां सप्ताह में 2 दिन ऐसे होते हैं जब वे लोग दूध की बिक्री नहीं करते हैं। यह 2 दिन हैं मंगलवार और रविवार। जिसमें यह लोग अपने घर जो दूध होता है उसे न ही बाहर बेचते हैं और ना ही किसी को देते हैं।
यह खास परंपरा इस क्षेत्र के महतपुर, जावरा, धावड़ा रैय्यत, बटकी, झिरनादादू, खुर्दा, चीरा, चिमयपुर, केकड़ियाखुर्द, गोबरबेल, दुलारिया, देसली, बाटला खुर्द, बेहड़ा, मोहनपुर, दामजीपुरा, चिल्लोर सहित अन्य ग्रामों में प्रचलित है। सभी गांवों में बिना किसी बहाने के इस परंपरा का पूरी निष्ठा के साथ निर्वहन किया जाता है।
इस बारे में ग्राम मोहनपुर के पंढरी यादव, कालू यादव, सुखराम सलामे एवं मानसिंह सलामे ने बताया कि रविवार को भीलट बाबा का दिन होता है। उस दिन यादव समाज के लोग दूध से भीलट बाबा का अभिषेक करते हैं। इसी तरह मंगलवार को संत श्री सिंगाजी महाराज का दिन होता है और दूध से सिंगाजी महाराज का अभिषेक किया जाता है। ऐसी परंपरा चली आ रही है।
दूसरी ओर आदिवासी समाज के लोग अपने कुल देव बड़ा देव को मानते हैं। वे एक दिन अपने भगवान के नाम से चाहे घर का दूध, दही जैसी चीज हो या फिर अन्य राशन किसी भी बाहर के व्यक्ति को नहीं देते हैं। इनके लिए यह विशेष दिन मंगलवार का दिन होता है। इस दिन घर कोई भी सामग्री बाहर किसी अन्य को नहीं देते हैं। उस दिन अगर द्वार पर आया कोई संत या फकीर भी हो तो उन्हें भी दोपहर बाद ही अपने घर की वस्तु देते हैं।
आदिवासी समुदाय में हालांकि अलग-अलग गांवों में अलग-अलग दिनों को प्राथमिकता दी जाती है, लेकिन यह दिन विशेष रुप से रविवार, मंगलवार और गुरुवार इन 3 दिनों में से ही कोई एक दिन होता है। समाज के बुजुर्ग बताते हैं कि यह परंपरा इस समाज में आदि काल से चली आ रही है। उसी को आज तक जीवित रखे हुए हैं।
दामजीपुरा क्षेत्र के लगभग सभी गांवों में इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इस बात से अन्य समाज के लोग भी वाकिफ हैं। यही वजह है कि वे इन दो दिनों के लिए पहले ही दूध आदि की व्यवस्था कर लेते हैं।
यदि ऐसा नहीं भी कर पाए और उस दिन कोई मेहमान आ जाए तो उसे इस परंपरा की जानकारी देकर बगैर दूध की चाय पिला कर क्षमा याचना कर लेते हैं। वैसे इन दो दिनों में दूध की केवल बिक्री भर नहीं की जाती है, लेकिन किसी बच्चे के लिए दूध की जरूरत हो तो वह बिलकुल उपलब्ध हो जाता है और वह भी पूरी तरह निःशुल्क।